“व्यवस्था परिवर्तन”
व्यवस्था परिवर्तन से तात्पर्य संपूर्ण क्रांति, समग्र क्रांति, हिंद स्वराज, राष्ट्रीय पुनर्निमाण -जैसे अनेक शब्दों में निहित है। समाज के अंदर चल रहे परिवर्तन-चक्र को सही, सकारात्मक और रचनात्मक दिशा देना तथा सही दिशा और विधि से आवश्यक गति प्रदान करना व्यवस्था परिवर्तन है.
व्यवस्था परिवर्तन क्यों?
आजादी के बाद हमने अंग्रेजों की सारी व्यवस्थाओं को अपनाया जो लूट सिस्टम है। अंग्रेजी व्यवस्था बनी ही थी भारत को बांटकर तथा आपस में लड़ाकर हमेशा राज कायम रखने की और उस व्यवस्था को ही आज हम अपने उत्थान का मार्ग मान बैठे हैं।आजादी के पिछले सात दशकों बाद में देश में बहुत सरकारें आई, बहुत सारी व्यवस्थाएं भी बनीं ,लेकिन रोटी,कपड़ा, मकान, रोजगार और शिक्षा में से एक का भी पूरा इंतजाम नहीं हो सका। ऐसे में व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई तो जरूरी हो जाती है।
शहीदों की स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई सिर्फ सत्ता हस्तांतरण के लिए नहीं थी ,बल्कि व्यवस्था में परिवर्तन लाना उस लड़ाई का
मुख्य उदेश्य था ;क्योंकि अंग्रेजों के द्वारा बनाई प्रशासनिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था भारत को कमजोर करके भारतीयों पर राज करने की थी।अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था में बैठने वाला व्यक्ति समरसता को तोड़ने वाली दुर्बलताओं के चलते बेहद शक्तिशाली और निरंकुश बन जाता है। इसी कारण जिस नेता को हम चुनते हैं और जब वह कुर्सी पर बैठता है तो वह भी अंग्रजों की तरह व्यवहार करने लगता है। हमको बांटता है, लूटता है और सिर्फ राजनीति करता है। प्रशासनिक सेवक और अन्य अधिकारी भी अंग्रेजों की लूट व्यवस्था को हथियार बना लेते हैं। जिस कारण हम आजाद होकर भी, मनमुताबिक विकास के लिए तरस रहे हैं।
इसलिए व्यवस्था परिवर्तन नितान्त आवश्यक है, जिसके अभाव में आज आम आदमी हर समस्या से जूझ रहा है।
व्यवस्था परिवर्तन कहाँ?
वर्तमान सरकार आम आदमी के जीवन स्तर में परिवर्तन के लिए सुराज ( Good Governance ) की बात करती है, लेकिन कुछ सुधारों से जीवन स्तर में परिवर्तन नहीं आ सकता है,जबतक कि पूरी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं हो जाए।सरकारें व्यवस्था में तत्कालिक सुधार लाकर परिवर्तन करना चाहती हैं, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन की सोच दूरगामी परिवर्तन से आएगी।जिस तरह व्यवस्थाओं में कालानुसार बदलाव होना जरूरी है, वैसे ही अपने देश की चुनावी व्यवस्था, शिक्षा-प्रणाली, प्रशासन-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था आदि में भी राष्ट्र का स्वत्व प्रकट होने वाले और जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले परिवर्तन की आज आवश्यकता है। इसमें समय तो लगेगा, किंतु यह कार्य न राजनीतिक दबंगता से होगा, न नक्सलियों की हिंसा से होगा।यह कार्य न तो तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के ढोंग करने से होगा और न ही मानवाधिकार के कथित ठेकेदारों के विलाप करने से होगा।व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लंबी है, जिसका दूरगामी परिणाम है। अतः हमें धैर्यपूर्वक लड़ाई को लड़ना होगा, ताकि हम सफल हो सकें.
१)शिक्षा व्यवस्था -संस्कृत भाषा को मूल में रखना और धीरे-धीरे बोलचाल की भाषा बनाना, जिसका सीधा लाभ यह होगा कि संस्कृत से संस्कृति का विकास होगा।लोग सत्य मार्ग पर चलेंगेऔर ईमानदारी से काम करेंगे। दूरगामी परिणाम यह होगा कि पुलिस, न्यायालय वगैरह की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।लोग स्वयं न्याय करने लगेंगे। तब भारत में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना होगी।
क)वर्तमान व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना और गुरूकुल की स्थापना व प्रचार-प्रसार
ख)गुरूकुल विद्या का शुभारंभ, जहाँ अस्त्र -शस्त्र की विद्या दी जाय ,जैसे प्राचीन भारत में होता था।
ग)योग विद्या अनिवार्य
घ)वेद की पढाई अनिवार्य
च) नैतिकता का ज्ञान
छ)वैदिक गणित
ज) विद्यापीठ की स्थापना
संस्कृत,हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा का ज्ञान सभी को होना जरूरी है।संस्कृत को राष्ट्र भाषा और हिन्दी को दूसरी भाषा का दर्जा। सरकारी प्रतिष्ठान संस्कृत/हिन्दी/क्षेत्रीय भाषा में लिखना। प्रतियोगिता की जगह सहयोग की भावना विकसित करना।
२)चिकित्सा पद्धति
क)आयुर्वेद के आधार पर चिकित्सा करना
ख)योग चिकित्सा का ज्ञान सभी को देते हुए नियमित योगाभ्यास करने की आदत बनाना।
ग)घरेलू चिकित्सा के प्रति विश्वास और जागरूकता
घ)शरीर विज्ञान, रसोई विज्ञान और खानपान की सही जानकारी और उसका पालन,आहार-विहार,दिन और ॠतुचर्या द्वारा जन-जन को अपने स्वास्थ्य की रक्षा स्वयं ही करने के लिए जागरूक करना, ताकि कोई रोगी हो ही नहीं।
च)भारतीयता और प्रकृति के साथ चलने पर बीमारी होगी ही नहीं।
3)कानून व्यवस्था
वर्तमान व्यवस्था के सारे एक्ट पूरी तरह खत्म करके भारतीय न्यायिक प्रणाली के आधार पर विवादों का समाधान।ग्राम सभा की स्थापना कर वहीं करीब- करीब सारी समस्याओं का समाधान करने पर बल।अधिकार प्रधान समाज से ऊपर उठकर कर्तव्य प्रधान समाज का निर्माण करने से न्याय लोग स्वयं करने लगेंगे। सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथा को ग्राम सभा के साथ बैठकर खत्म करना।
देश के साथ गद्दारी करने वाले को चौराहा पर फांसी। जेल पूरी तरह से समाप्त कर तुरंत न्याय
की घोषणा।
4)कर प्रणाली
सारे कर को पूरी तरह से समाप्त कर मात्र 2% ट्रांजैक्शन कर लगाना
5)कार्यपालिका
राष्ट्रपति, राज्यपाल, उप राष्ट्रपति, उप राज्यपाल का पद समाप्त कर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री का चुनाव सीधे जनता द्वारा।चुनाव बैलेट पेपर से होगा। जनता को यह भी अधिकार होगा कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अच्छा काम नहीं करने की स्थिति में पदमुक्त कर दें।
6)विदेशों में जमा सारी सम्पत्ति को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करना
7)कृषि व्यवस्था
मिलावटी व जहरीले खाद्य पदार्थों से जन-जन को बचाने के लिए देश के किसानों को जैविक खेती करने के लिए प्रेरित करना।कृषि को गौ आधारित व्यवस्था में परिवर्तन करना, जहाँ रासायनिक खेती की जगह जैविक कृषि का बढावा,देशी गौमाता का पालन -पोषण और देशी बीज का उत्पादन,संरक्षण व संवर्धन करने की व्यवस्था हो।
मशीनरी की जगह बैल वगैरह से खेती करना।देशी बीज बैंक की स्थापना ।रोड, पानी,बिजली को दुरुस्त करना।
8)अंग्रेजो द्वारा सारे एक्ट, पुलिस एक्ट वगैरह खत्म कर जनता की भलाई के लिए नियम बनाना।योगाभ्यास अनिवार्य करना, ताकि जनता जनार्दन यम-नियम का पालन करे।
कोई भी मंत्री, प्रधानमंत्री विदेश नहीं जायेगा। जिस देश को जरूरत है भारत से बात करने की वह खुद भारत आएगा।
बहुत लोग विदेश में घूमने जाते हैं ।वैसे लोगों के लिए भारत में इतने अच्छे -अच्छे प्राकृतिक सुन्दर स्थल हैं उन्हे अपने मूल स्वरूप में लाना।
9)रक्षा मामले में प्रत्येक व्यक्ति को प्रशिक्षण दिया जाएगा ,जैसे राम की सेना और राजा भरत की सेना थी ,ताकि जरूरत पड़ने पर सभी देश के लिए लड़ सकें।
सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं को समाप्त कर सबसे कमजोर को मदद करने पर बल। नामों के आगे टाइटिल समाप्त। दूरदर्शन, रेडियो को छोड़कर सारे चैनल बन्द। फिल्म को बन्द कर भारतीय नृत्य, नाटक, संगीत को बढावा।
सत्य, अस्तेय,अहिंसा,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का सख्ती से पालन और दस पापकर्म(हिंसा,स्तेय,अभिध्या, परूष वचन,पैशुन्य,अनृत,सभिन्नालाप,व्यापाद,अन्यथा काम और दिग्विपर्यय) करने वाले को सजा सामाजिक वहिष्कार।
सामाजिक, राजनीतिक,आर्थिक, शैक्षणिक व धार्मिक शोषण से मुक्त पारस्परिक भाईचारा,समता और समरसता पर आधारित कर्तव्य प्रधान समाज का निर्माण करना । जाति-धर्म,लिंग,वर्ण,वर्ग, सम्प्रदाय,भाषा,क्षेत्रवाद आदि की क्षुद्र भावना से ऊपर उठकर राष्ट्रहित के लिए कार्य करना।
ऊर्जा के क्षेत्र में सौर ऊर्जा का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग।
व्यवस्था परिवर्तन कैसे?
व्यवस्था परिवर्तन के लिए सबसे पहले खुद शत- प्रतिशत ईमानदार तथा पारदर्शी होना होगा और धीरे-धीरे सभी को बनना होगा।तभी हम भारत को विश्व गुरू बनाने में सफल होंगे ,क्योंकि बेईमान हर पग पर धोखा देगा। झूठ,चापलूसी,अहंकार आदि की कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
प्रकृति केंद्रित विकास को ध्यान में रखते हुए भारत की शिक्षा नीति, अर्थनीति और राजनीति- गौ, गंगा,गायत्री और भारतीय संस्कृति के अनुकूल हो। यही व्यापक लोकहित में सार्थक कदम होगा।
जल- जमीन के संरक्षण एवं प्रकृति आधारित विकास की व्यवस्था भारत में जरूरी है। इसका जुड़ाव मूलत: इस बहस से है कि मनुष्य प्रकृति का विजेता है या हिस्सा?जो प्रकृति का हिस्सा मानते हैं उनके विकास की समझ, दिशा और तरीका अलग होगा। जो मानव को प्रकृति का विजेता मानते है वो पिछले 500 वर्षों से चली आ रही आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्थाओं की आज की परिणीति के प्रति जबावदेह होंगे।आज का यह मानव केंद्रित विकास की क्षमता के मूल में उन्मुक्त उपभोगवादी ,शोषणजनक तथा आधे -अधूरे विकास के रूप में दिखता है। सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की पूरी तरह अवहेलना हो रही है। यह प्रक्रिया हथियारवाद, उपनिवेशवाद और सरकारवाद से गुजरती हुई पाशविक उपभोगवादी बाजारवाद की स्थिति तक पंहुची। है। उसका अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है। मनुष्य का अस्तित्व ही सृष्टि संरक्षण के लिए प्रकृति द्वारा क्षमता युक्त योनि के रूप में सृजित हुआ।
मानव को अपनी समृद्धि और संस्कृति के लिए आवश्यक राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना खड़ी करनी होगी। यही मानव केंद्रित विकास की बजाय प्रकृति केंद्रित विकास का महत्वपूर्ण तत्व होगा। सत्ता से व्यवस्था परिवर्तन नहीं होगा, व्यवस्था परिवर्तन के लिए समाज की सोच में परिवर्तन आवश्यक है।व्यवस्था परिवर्तन के लिए केवल चिंता नहीं चिंतन करने की आवश्यकता है।आंदोलन, सत्ता-परिवर्तन और व्यवस्था-परिवर्तन, ये एक ही प्रक्रिया के तीन चरण हैं,परंतु यदि आंदोलन का वैचारिक आधार और समाज में उसकी पैठ गहरी हो जाए तो वह आंदोलन देश में व्यवस्थाओं में सुधार ला सकता है। आज देश में बुद्धिजीवी दो धाराओं में बंट चुके हैं। इनके बीच कोई संवाद नहीं है। देश हित में विचारों का द्वंद ठीक नहीं है। राष्ट्रवाद ही देश का यथार्थ है।
मनुष्य में कई मौलिक वृत्तियां होती हैं, जैसे
लड़ाकू वृत्ति, अपना स्वार्थ साधने की वृत्ति आदि। इन वृत्तियों की उपस्थिति मनुष्य को क्रूर और अशिष्ट बनाती है। मनोवैज्ञानिक इन्हें मनुष्य की मूल वृत्तियां मानते हैं। प्राचीन आचार्य इन वृत्तियों को राग-द्वेष मानते थे। भाषा का भेद है। भाव की दृष्टि से दोनों एक ही हैं। मनुष्य इन वृत्तियों से एकदम छुटकारा पा ले, ऐसा संभव नहीं, लेकिन यदि इनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न न किया जाए तो वह और अधिक दारुण बन सकता है। इसलिए वृत्तियों के परिमार्जन का प्रयत्न अवश्य होना चाहिए। मनुष्य धर्म का आचरण हजारों वर्षों से कर रहा है। फिर भी उसका जीवन जैसा बनना चाहिए वैसा नहीं बना है। इससे लगता है कि कहीं न कहीं कोई कमी है। धर्म को जितने लोगों ने परलोक सुधारने के लिए स्वीकार किया उतनों ने इसे अपना वर्तमान सुधारने के लिए नहीं अपनाया। परलोक को सुधारने की दृष्टि से धर्म करने वाले बहुत हैं, पर वर्तमान को सुधारने की दृष्टि से धर्म करने वाले कम हैं। इसीलिए धर्म के द्वारा जितना नैतिक विकास होना चाहिए उतना नहीं हुआ। जिसके जीवन में धर्म है, परंतु नैतिकता नहीं है, तो इसका अर्थ हुआ ,उसके जीवन में धर्म नहीं है। यह कैसे संभव हो सकता है कि दीपक है, वह जलता भी है, पर प्रकाश नहीं है। जलन क्रिया और प्रकाश में विरोधाभास नहीं है। प्रकाश और अंधकार में विरोध है। धर्म और क्रूरता एक साथ नहीं रह सकते। एक व्यक्ति ने परिग्रह का अल्पीकरण करना चाहा, क्योंकि परिग्रह मोक्ष का बाधक है। परिग्रह की सीमा निर्धारित की -‘एक लाख रुपये से ज्यादा नहीं रखूंगा।’ व्यापार में जब धन अधिक बढ़ गया तो उसने उस अतिरिक्त धन को अपने लड़कों के नाम से कर दिया, लेकिन उसका विसर्जन नहीं किया। जब तक विसर्जन नहीं किया जाता, उससे ममत्व नहीं हटता। विसर्जन के बिना संग्रह के प्रति आकर्षण भी कम नहीं होता। हमारे आचार्यों ने यम और नियम का भेद दिखाते हुए कहा औरअहिंसा, सत्य, अस्तेय,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को यम का अनिवार्य अंग बताया। ये प्रतिदिन के लिए अनिवार्य होने चाहिए। एक व्यक्ति अपरिग्रही बनता है, फिर वही दो घंटे के बाद परिग्रही बने, यह नहीं हो सकता। एक व्यक्ति परिग्रह को छोड़ साधु बनता है तो क्या वह दो घंटे के बाद लाख रुपया पास में रख लेगा? नहीं। यम जीवन में अनिवार्य रूप से आते हैं। वे पूरे जीवन के लिए होते हैं। उनमें काल की सीमा नहीं होती। नियम परिवर्तनशील होते हैं, आवश्यकता के अनुसार किए जाते हैं। एक व्यक्ति आज उपवास करता है,कल वह नहीं भी करता। पूजा करनेवाला एक घंटे तक पूजा करता है, परंतु ऐसा नहीं देखा जाता कि चौबीस घंटे पूजा ही करता रहे। नियम देश, काल और मर्यादा सापेक्ष होते हैं,परंतु आज विपरीत क्रम हो गया है। नियम प्रधान बन गया है, यम की आवश्यकता भी नहीं रह गई है। नियम के आधार पर चलनेवाला जिस कुल में जन्मता है वैसा ही अपना आचरण बना लेता है। दो- चार वर्ष के बच्चे के सिर पर अमुक प्रकार का टीका लगा हुआ था। बच्चा क्या जानता है! माता पिता ने अपने धर्म का प्रतीक उसको बना दिया। आज धर्म आनुवंशिक रूप में पाला जाता है। धर्म में परिवर्तन की जो क्षमता थी, वह आज नहीं है। भगवान महावीर, बुद्ध और कृष्ण ने क्रांति की थी। आज वही परंपरा में परिवर्तित हो गई। आचार्य तुलसी ने कहा था, ‘साधारण जनता के लिए हृदय-परिवर्तन के साथ व्यवस्था परिवर्तन भी आवश्यक होता है।’ संग्रह का द्वार जब तक खुला रहेगा तब तक ‘ब्लैक मत करो, रिश्वत मत लो’ -इसका पालन कैसे होगा? कुछ लोगों का दृष्टिकोण बदला है। तो खर्च में भी कमी हुई है। साधन शुद्धि पर भी विश्वास जमा है। कुछ लोगों ने दहेज लेना बंद कर दिया है, उसका प्रदर्शन भी बंद कर दिया है। तो विवाह भी एक दिन में होने लगे हैं। जब तक सामाजिक मानंदड में परिवर्तन नहीं किया जाएगा तबतक नैतिकता को विकसित होने में कठिनाई होगी। इसलिए नैतिकता को प्रतिफलित करने के लिए वैसी परिस्थिति का निर्माण भी आवश्यक है।
व्यवस्था परिवर्तन के लिए हम सीधे सरकार से नहीं लड़ सकतें, हमे इसकी जड़ में जाना है। भारत गावों का देश है। अब हमें एक -एक गाँव में अपनी व्यवस्था बनानी है और एक माडल बनानी है ,जिसे हमें भारत में बनाना है। रूपया से अधिक शक्ति जनबल का है।अतः हमें शक्ति गाँवों में बढानी है।सारी व्यवस्था जो हमें करनी है वह गाँव में केन्द्रित करके करनी है। एक गाँव से दो,तीन करते -करते पंचायत ,फिर राज्य और तब पूरे भारत की व्यवस्था बदलनी है और इण्डिया नाम को पूर्णतः समाप्त करना है। इसी के साथ सारे अंग्रेजी नामों को बदलना है और पूरी व्यवस्था को बदलना है।